वात, पित्त, और कफ शरीर के आधार :-
हमारा शरीर वात , पित्त और कफ तीन दोषों पर टिका है। जब तक ये सम अवस्था में रहते है ,हम स्वस्थ रहते है। जैसे ही इनका संतुलन बिगड़ता है, हम अस्वस्थ हो जाते है। स्त्री हो या पुरुष किसी एक दोष प्रधान शरीर से युक्त होता है। अत: हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति को जानकर उसी के अनुरूप अपनी दिनचर्या बनानी चाहिए।
इस पोस्ट में हम वात दोष के बारे में बात करेंगे की वात(वायु ) दोष से होने वाले रोग और वात दोष का निवारण क्या है।
वात दोष :-
वात वायु को कहते है। यह पांच प्रकार की होती है।
हम श्वास के द्वारा वात को ग्रहण करते है। वात अंत: जल व अग्नि व ज्ञान को उत्पन्न करने वाला है। पाचन, निष्कासन रक्त भ्रमण, श्वसन, ग्रंथि स्राव तथा नाड़ी सस्थान वात पर निर्भर है। वात द्वज्ञरा हल्कापन, सूक्ष्मता द्वारा अनुभव होता है।
गर्मी के मौसम में वायु का संचय, वर्षा ऋतू में प्रकोप, बुढ़ापे में रात व शाम में बढ़ता है। वात की प्रधानता के समय व्यक्ति का स्वाद मीठा, जीभ फ़टी सी, आँख सफेद या हल्की नीली, शरीर ठण्डा, मन चंचल, वाणी स्पष्ट, मल झागदार व सफ़ेद होता है। नाड़ी की गति सांय की तरह चलती है। शरीर में छोटी - बड़ी चेष्टाएँ, धातुओं को व्यवस्थित करना, वस्तुओ को निकट लाना, वात के कार्य है। हमारी आयु भी वात पर निर्भर है। हृदय रोग, शायटिका, लक्वा, वात ज्वर, पार्किसून, शूल, सिरदर्द, अनिद्रा, सुन्नता, रक्त का श्याम वर्ण होना आदि मुख्य रोग है। जोड़ो के दर्द, वायु की कमी से शरीर में शिथिलता, बोलने की क्षमता घटना, निराशा का आना, ग्रहणशीलता में कमी होना, कफ का अधिक बनना तथा जठराग्नि मंद होना सम्भव होता है। वात के बढ़ने के कारण और कुपित होने के 8 कारण है। वात संबंधी 97 प्रकार के रोग उत्पन्न होते है जो ठंड से प्रभावित होते है।
उपचार :-
हमारा शरीर वात , पित्त और कफ तीन दोषों पर टिका है। जब तक ये सम अवस्था में रहते है ,हम स्वस्थ रहते है। जैसे ही इनका संतुलन बिगड़ता है, हम अस्वस्थ हो जाते है। स्त्री हो या पुरुष किसी एक दोष प्रधान शरीर से युक्त होता है। अत: हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति को जानकर उसी के अनुरूप अपनी दिनचर्या बनानी चाहिए।
इस पोस्ट में हम वात दोष के बारे में बात करेंगे की वात(वायु ) दोष से होने वाले रोग और वात दोष का निवारण क्या है।
वात दोष :-
वात वायु को कहते है। यह पांच प्रकार की होती है।
- अपान वायु - गुदा में रहती है।
- समान वायु - नाभि में रहती है।
- प्राण वायु - ह्रदय में रहती है।
- उदान वायु - कंठ में रहती है।
- व्यान वायु - सारे शरीर में व्याप्त रहती है।
हम श्वास के द्वारा वात को ग्रहण करते है। वात अंत: जल व अग्नि व ज्ञान को उत्पन्न करने वाला है। पाचन, निष्कासन रक्त भ्रमण, श्वसन, ग्रंथि स्राव तथा नाड़ी सस्थान वात पर निर्भर है। वात द्वज्ञरा हल्कापन, सूक्ष्मता द्वारा अनुभव होता है।
गर्मी के मौसम में वायु का संचय, वर्षा ऋतू में प्रकोप, बुढ़ापे में रात व शाम में बढ़ता है। वात की प्रधानता के समय व्यक्ति का स्वाद मीठा, जीभ फ़टी सी, आँख सफेद या हल्की नीली, शरीर ठण्डा, मन चंचल, वाणी स्पष्ट, मल झागदार व सफ़ेद होता है। नाड़ी की गति सांय की तरह चलती है। शरीर में छोटी - बड़ी चेष्टाएँ, धातुओं को व्यवस्थित करना, वस्तुओ को निकट लाना, वात के कार्य है। हमारी आयु भी वात पर निर्भर है। हृदय रोग, शायटिका, लक्वा, वात ज्वर, पार्किसून, शूल, सिरदर्द, अनिद्रा, सुन्नता, रक्त का श्याम वर्ण होना आदि मुख्य रोग है। जोड़ो के दर्द, वायु की कमी से शरीर में शिथिलता, बोलने की क्षमता घटना, निराशा का आना, ग्रहणशीलता में कमी होना, कफ का अधिक बनना तथा जठराग्नि मंद होना सम्भव होता है। वात के बढ़ने के कारण और कुपित होने के 8 कारण है। वात संबंधी 97 प्रकार के रोग उत्पन्न होते है जो ठंड से प्रभावित होते है।
उपचार :-
- शुध्दि क्रियाये - कुंजल , नेति ( सूत्र + जल ) करना।
- योगासन - त्रिकोणासन, सूर्य नमस्कार, जानुशिरासन, कोणासन, मत्स्यासन, भुंजगासन, वज्रासन, उष्ट्रासन, गोमुखासन, शलभासन, श्वासन आदि।
- प्राणायाम - अग्निसार, प्लाविनी, कपालभाति, भस्त्रिका, तालब प्राणायाम, अनुलोम - विलोम तथा नाड़ी शोधन प्राणायाम करना चाहिए।
- मुद्राये - ( वायु मुद्रा - अपान मुद्रा ) 48 मिनट या 163 बार करना।
No comments:
Post a Comment