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Top 10 hasth mudraye | 10 हस्त मुद्राएं

1.ज्ञान मुद्रा 

Top 10 hasth mudraye | 10 हस्त मुद्राएं


  • अंगूठे एवं तर्जनी अंगुली के स्पर्श से जो मुद्रा बनती है उसे ज्ञान मुद्रा कहते हैं। 

विधि :

  • पद्मासन या सुखासन में बैठ जाए। 
  • अपने हाथों को घुटनो पर रख लें तथा अंगूठे के पास वाली अंगुली (तर्जनी ) के ऊपर के छोर को अंगूठे के ऊपर वाले छोर से स्पर्श कराएं। 
  • हाथ की बाकि अंगुलियां सीधी व एक साथ मिलाकर रखें। 

सावधानियां :

  • ज्ञान मुद्रा से संपूर्ण लाभ पाने के लिए साधक को चाहिए कि वह सादा प्राकृतिक भोजन करें। 
  • मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान, तंबाकू, चाय, कॉफी, कोल्ड ड्रिंक आदि का सेवन न करें 
  • उर्जा का अपव्यय जैसे- अनगर्ल वार्तालाप करते हुए या सामान्य स्थिति में जो भी अपने पैरों या अन्य अंगों को हिलाना, ईर्ष्या, अहंकार आदि ऊर्जा के अपव्यय का कारण होते हैं, इनसे बचे। 

मुद्रा करने का समय व अवधि : 

  • प्रातः दोपहर एवं सांयकाल इस मुद्रा को किया जा सकता है। 
  • प्रतिदिन 48 मिनट या अपनी सुविधानुसार इससे अधिक समय तक ज्ञान मुद्रा को किया जा सकता है।  
  • यदि एक बार में 48 मिनट करना संभव न हो तो तीनों समय 16 - 16 मिनट तक कर सकते हैं। 
  • पूर्ण लाभ के लिए प्रतिदिन कम से कम 48 मिनट तक ध्यान मुद्रा को करना चाहिए। 

चिकित्सकीय लाभ : 

  • ज्ञान मुद्रा विद्यार्थियों के लिए अत्यंत लाभकारी मुद्रा है, इसके अभ्यास से बुद्धि का विकास होता है, स्मृति शक्ति व एकाग्रता शक्ति बढ़ती है एवं पढ़ाई में मन लगने लगता है। 
  • ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से अनिद्रा, सिरदर्द, क्रोध, चिड़चिड़ापन, तनाव, बेसब्री, एवं चिंता नष्ट हो जाती है। 
  • ज्ञान मुद्रा करने से हिस्टीरिया रोग समाप्त हो जाता है। 
  • नियमित रूप से ज्ञान मुद्रा करने से मानसिक विकारों एवं नशा करने की लत से छुटकारा मिल जाता है। 
  • इस मुद्रा के अभ्यास से पाचन शक्ति बढ़ती है जिससे पाचन संबंधी रोगों में लाभ मिलता है। 
  • ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से स्नायु मंडल मजबूत होता है। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • ज्ञान मुद्रा में ध्यान का अभ्यास करने से एकाग्रता बढ़ती है जिससे ध्यान परिपक्व होकर व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति करता है। 
  • ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से साधक में दया, निडरता, मैत्री, शांति जैसे भाव जागृत होते हैं। 
  • इस मुद्रा को करने से संकल्प शक्ति में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि होती है। 


2.पृथ्वी मुद्रा 

Top 10 hasth mudraye | 10 हस्त मुद्राएं


विधि :

  • वज्रासन की स्थिति में दोनों पैरों के घुटनो को मोड़ कर बैठ जाएं, रीड की हड्डी सीधी रहे एवं दोनों पैर अंगूठे के आगे से मिले रहने चाहिए। एड़िया सटी रहे। नितंब का भाग एड़ियों पर टिकना लाभकारी होता है। यदि वज्रासन में बैठ सके तो पद्मासन या सुखासन में बैठ सकते हैं।
  • दोनों हाथों को घुटनों पर रखें, हथेलियां ऊपर की तरफ रहे। 
  • अपने हाथ की अनामिका अंगुली ( सबसे छोटी अंगुली के पास वाली अंगुली ) के अगले छोर को अंगूठे के ऊपर के छोर से स्पर्श कराएं। 
  • हाथ की बाकी सारी अंगुलियां बिल्कुल सीधी रहे। 

सावधानियां :

  • वैसे तो पृथ्वी मुद्रा को किसी भी आसन में किया जा सकता है, परंतु इसे वज्रासन में करना अधिक लाभकारी है, अतः यथासंभव इस मुद्रा को वज्रासन में बैठकर करना चाहिए। 

मुद्रा करने का समय व अवधि :

  • पृथ्वी मुद्रा को प्रातःकाल व सांयकाल 24 - 24 मिनट करना चाहिए। वैसे किसी भी समय एवं कहीं भी इस मुद्रा को कर सकते हैं। 

चिकित्सकीय लाभ :

  • जिन लोगों को भोजन पचने का या गैस का रोग हो उनको भोजन करने के बाद 5 मिनट तक वज्रासन में बैठकर पृथ्वी मुद्रा करने से अत्यधिक लाभ होता है। 
  • पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से आंख, कान, नाक और गले के समस्त रोग दूर हो जाते हैं। 
  • पृथ्वी मुद्रा करने से कंठ सुरीला हो जाता है। 
  • इस मुद्रा को करने से गले में बार-बार खराश होना, गले में दर्द रहना जैसे रोगों में बहुत लाभ होता है।  
  • पृथ्वी मुद्रा से मन में हल्का महसूस होता है एवं शरीर ताकतवर और मजबूत बनता है। 
  • पृथ्वी मुद्रा को प्रतिदिन करने से महिलाओं की खूबसूरती बढ़ती है, एवं चेहरा सुंदर हो जाता है और  पूरे शरीर में चमक पैदा हो जाती है। 
  • पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से स्मृति शक्ति बढ़ती है एवं मस्तिष्क में ऊर्जा बढ़ती है। 
  • पृथ्वी मुद्रा करने से दुबले -पतले लोगों का वजन बढ़ता है। शरीर में ठोस तत्व एवं तेल की मात्रा बढ़ने के लिए पृथ्वी मुद्रा सर्वोत्तम है। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • हस्त मुद्राओं में पृथ्वी मुद्रा का बहुत महत्व है, यह हमारे भीतर के पृथ्वी तत्व को जागृत करती है। 
  • पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से मन में वैराग्य भाव उत्पन्न होता है। 
  • जिस प्रकार से पृथ्वी मां प्रत्येक स्थिति जैसे : सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि को सहन करती है एवं प्राणियों द्वारा मल -मूत्र आदि से स्वयं गन्दा होने के बावजूद उन्हें क्षमा कर देती है। 
  • पृथ्वी मां आकार में ही नहीं बल्कि ह्रदय से भी विशाल है। पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से इसी प्रकार के गुण साधक में भी विकसित होने लगते हैं। 
  • यह मुद्दा विचार शक्ति को उन्नत बनाने में मदद करती है।


3.वरुण मुद्रा 

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विधि : 

  • पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं। रीड की हड्डी सीधी रहे एवं दोनों हाथ घुटनों पर रखें। 
  • सबसे छोटी अंगुली ( कनिष्ठा ) के ऊपर वाले छोर को अंगूठे के ऊपरी छोर से स्पर्श करते हुए हल्का सा दबाएं। बाकी की तीनों अंगुलियों को सीधा करके रखें। 

सावधानियां :

  • जिन व्यक्तियों कि कफ प्रवृत्ति है एवं हमेशा सर्दी जुखाम बना रहता है, उन्हें वरुण मुद्रा का अभ्यास अधिक समय तक नहीं करना चाहिए। 
  • सामान्य व्यक्तियों को भी सर्दी के मौसम में वरुण मुद्रा का अभ्यास अधिक समय तक नहीं करना चाहिए। 
  • गर्मी व अन्य मौसम में इस मुद्रा को प्रातः सायं 24 - 24 मिनट तक किया जा सकता है। 

मुद्रा करने का समय व अवधी :

  • वरुण मुद्रा का अभ्यास प्रातः व सायंकाल अधिकतम 24 - 24 मिनट तक करना उत्तम है, वैसे इस मुद्रा को किसी भी समय किया जा सकता है। 

चिकित्सकीय लाभ :

  • वरुण मुद्रा शरीर में जल तत्व संतुलन कर जल की कमी से होने वाले समस्त रोगों को नष्ट करती है। 
  • वरुण मुद्रा स्नायु के दर्द, आंतों की सूजन में लाभकारी है। 
  • इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर से अत्यधिक पसीना आना समाप्त हो जाता है। 
  • वरुण मुद्रा के नियमित अभ्यास से रक्त शुद्ध होता है एवं त्वचा रोग व शरीर का रूखापन नष्ट होता है। 
  • यह मुद्रा शरीर के यौवन को बनाए रखती है और शरीर को लचीला बनाने में भी लाभप्रद है। 
  • वरुण मुद्रा करने से अत्यधिक प्यास शांत हो जाती है। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • जल तत्व ( कनिष्ठा ) और अग्नि तत्व ( अंगूठे ) को एक साथ मिलाने से शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन होता है। जिससे साधक के कार्यों में निरंतरता का संचार होता है। 


4.वायु मुद्रा 

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विधि :

  • वज्रासन या सुखासन में बैठ जाए, रीड की हड्डी सीधी एवं दोनों हाथ घुटनों पर रखें। हथेलियाँ ऊपर की और रखें।  
  • अंगूठे के बगल वाली ( तर्जनी ) अंगुली को हथेली की तरफ मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगा दें। 

मुद्रा करने का समय व अवधि :

  • वायु मुद्रा का अभ्यास प्रातः , दोपहर और सायंकाल 8 - 8 मिनट के लिए किया जा सकता है। 

चिकित्सकीय लाभ : 

  • अपच व गैस होने पर भोजन के तुरंत बाद वज्रासन में बैठकर 5 मिनट तक वायु मुद्रा करने से यह रोग नष्ट हो जाता है। 
  • वायु मुद्रा के नियमित अभ्यास से लकवा, गठिया, साइटिका, गैस का दर्द, जोड़ों का दर्द, कमर और गर्दन तथा रीढ़ के अन्य भागों में होने वाले दर्द में भी लाभ होता है। 
  • वायु मुद्रा के अभ्यास से शरीर में वायु के असंतुलन से होने वाले समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। 
  • इस मुद्रा को करने से कम्पवात, रेंगने वाला दर्द, दस्त, कब्ज, एसिडिटी एवं पेट संबंधित अन्य विकार समाप्त हो जाते हैं। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • वायु मुद्रा के अभ्यास से ध्यान की अवस्था में मन की चंचलता समाप्त होकर मन एकाग्र होता है एवं सुषुम्ना नाड़ी में प्राण वायु का संचार होने लगता है जिससे चक्रों का जागरण होता है। 


5.शून्य मुद्रा 

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विधि :

  • मध्यमा अंगुली ( बीच की उंगली ) को हथेलियों की ओर मोड़ते हुए अंगूठे से उसके प्रथम छोर को दबाते हुए बाकी की अंगुलियों को सीधा रखने से शून्य मुद्रा बनती है। 

मुद्रा करने का समय व अवधि :

  • मुद्रा को प्रतिदिन तीन बार प्रातः, दोपहर, सायं  15 - 15 मिनट के लिए करना चाहिए। 
  • एक बार में 45 मिनट तक कर सकते हैं। 

चिकित्सकीय लाभ :

  • शून्य मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान के रोग जैसे : कान में दर्द, बहरापन, कान का बहना, कानों में अजीब - अजीब सी आवाज आना आदि समाप्त हो जाते हैं। कान दर्द होने पर शून्य मुद्रा को मात्र 5 मिनट तक करने से कान दर्द में आराम मिलता है। 
  • शून्य मुद्रा गले के लगभग सभी रोगों में लाभकारी है। 
  • यह मुद्रा थायराइड ग्रंथि के रोग दूर करती है। 
  • शून्य मुद्रा शरीर के आलस्य को कम कर स्फूर्ति जगाती है। 
  • इस मुद्रा को करने से मानसिक तनाव समाप्त हो जाता है। 
  • आध्यात्मिक लाभ :
  • शून्य मुद्रा के निरंतर अभ्यास से स्वभाव में उन्मुक्तता आती है। 
  • इस मुद्रा से एकाग्रता बढ़ती है। 
  • शून्य मुद्रा इच्छाशक्ति मजबूत बनाती है। 

सावधानियां :

  • भोजन करने के तुरंत पहले या बाद में शून्य मुद्रा न करें। 
  • किसी आसन में बैठकर एकाग्रचित होकर शून्य मुद्रा करने से अधिक लाभ होता है। 


6.सूर्य मुद्रा 

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विधि :

  • सिद्धासन, पद्मासन या सुखासन में बैठ जाए। 
  • दोनों हाथ घुटनों पर रख ले हथेलियों पर की तरफ रहे। 
  • अनामिका अंगुली ( रिंग फिंगर ) को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगा लें एवं ऊपर से अंगूठे से दवा ले। 
  • बाकी की तीनों गोली सीधी रखें। 

सावधानियां :

  • अधिक कमजोरी की अवस्था में सूर्य मुद्रा नहीं करनी चाहिए। 
  • सूर्य मुद्रा करने से शरीर में गर्मी बढ़ती है अतः गर्मियों में मुद्रा करने से पहले एक गिलास पानी पी लेना चाहिए। 

मुद्रा करने का समय व अवधि :

  • प्रातः सूर्योदय से पहले स्नान आदि से निवृत्त होकर इस मुद्रा को करना अधिक लाभदायक होता है। सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व कर सकते हैं। 
  • सूर्य मुद्रा को प्रारंभ में 8 मिनट से प्रारंभ करके 24 मिनट तक किया जा सकता है। 
चिकित्सकीय लाभ :
  • सूर्य मुद्रा को दिन में दो बार 16 - 16 मिनट करने से कोलेस्ट्रॉल घटता है। 
  • अनामिका अंगुली पृथ्वी एवं अंगूठा अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है, इन तत्वों के मिलन से शरीर में तुरंत ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है। 
  • सूर्य मुद्रा के अभ्यास से मोटापा दूर होता है। शरीर की सूजन दूर करने में लाभकारी है। 
  • सूर्य मुद्रा करने से पेट के रोग नष्ट हो जाते हैं। 
  • इस मुद्रा के अभ्यास से मानसिक तनाव दूर हो जाता है। 
  • प्रसव के बाद जिन स्त्रियों का मोटापा बढ़ जाता है उनके लिए सूर्य मुद्रा अत्यंत उपयोगी है। इसके अभ्यास से प्रसव उपरांत का मोटापा नष्ट होकर पहले जैसा बना रहता है। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • सूर्य मुद्रा के अभ्यास से व्यक्ति में अंतर्ज्ञान जागृत होता है। 


7.प्राण मुद्रा 

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विधि :

  • पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएं, रीड की हड्डी सीधी रखें। 
  • अपने हाथों को घुटनों पर रख ले हथेलियों ऊपर की तरफ रहे। 
  • हाथ की सबसे छोटी उंगली ( कनिष्ठा ) एवं इसके बगल वाली अंगुली ( अनामिका ) के छोर को अंगूठे के छोर से लगा दे। 

सावधानियां :

  • प्राण मुद्रा से प्राण शक्ति बढ़ती है यह शक्ति इंद्रिय, मन और भावों के उचित उपयोग से धार्मिक बनती है परंतु यदि इसका सही उपयोग नहीं किया जाए तो यही शक्ति इंद्रियों को अशक्ति, मन को अशांति और भावों को बुरी तरफ भी ले जा सकती है। 
  • इसलिए प्राण मुद्रा से बढ़ने वाली प्राण शक्ति का संतुलन बनाकर रखना चाहिए। 

मुद्रा करने की अवधि व समय :

  • प्राण मुद्रा को 1 दिन में अधिकतम 48 मिनट तक किया जा सकता है। यदि एक बार में 48 मिनट तक करना संभव ना हो तो सुबह, दोपहर व शाम को 16 - 16 मिनट तक कर सकते हैं। 

चिकित्सकीय लाभ :

  • प्राण मुद्रा ह्रदय रोग में रामबाण है यह नेत्र ज्योति बढ़ाने में बहुत सहायक है। 
  • इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से प्राण शक्ति की कमी दूर होकर व्यक्ति तेजस्वी बनता है। 
  • प्राण मुद्रा से लकवा रोग के कारण आई कमजोरी दूर होकर शरीर शक्तिशाली बनता है। 
  • इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से मन की बैचेनी और कठोरता को दूर करती है एवं एकाग्रता बढ़ती है। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • प्राण मुद्रा को पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर करने से शक्ति जागृत होकर ऊधर्वमुखी हो जाती है, जिससे चक्र जागृत होते हैं एवं साधक अलौकिक शक्तियों से युक्त हो जाता है। 
  • प्राण मुद्रा में जल पृथ्वी एवं अग्नि तत्व एक साथ मिलने से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होता है जिससे व्यक्तित्व का विकास होता है। 


8.लिंग मुद्रा 

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विधि :

  • किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाएं। 
  • दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर एक -दूसरे में फसायें।  
  • किसी भी एक अंगूठे को सीधा रखें तथा दूसरे अंगूठे से सीधे अंगूठे के पीछे से लाकर घेरा बना दें। 

सावधानियां :

  • लिंग मुद्रा से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है, इसलिए इस मुद्रा को करने के पश्चात यदि गर्मी महसूस हो तो तुरंत पानी पी लेना चाहिए। 
  • लिंग मुद्रा को नियत समय से अधिक नहीं करना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि संभव है। 
  • गर्मी के मौसम में इस मुद्रा को अधिक समय तक नहीं करना चाहिए। 
  • पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को लिंग मुद्रा नहीं करनी चाहिए। 

मुद्रा करने का समय व अवधि :

  • लिंग मुद्रा को प्रातः सायं 16 - 16 मिनट तक करना चाहिए। 

चिकित्सकीय लाभ :

  • सर्दी से ठिठुरता व्यक्ति यदि कुछ समय तक लिंग मुद्रा कर ले तो उसकी सर्दी दूर हो जाती है। 
  • लिंग मुद्रा के अभ्यास से जीर्ण नजला, जुकाम, साइनुसाइटिस, अस्थमा व निम्न रक्तचाप का रोग नष्ट हो जाता है। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से कफयुक्त खांसी एवं छाती की जलन नष्ट हो जाती है। 
  • यदि सर्दी लगकर बुखार आ रहा हो तो लिंग मुद्रा तुरंत असरकारक सिद्ध होती है। 
  • लिंग मुद्रा के नियमित अभ्यास से अतिरिक्त कैलोरी बर्न होती है परिणाम स्वरूप मोटापा रोग समाप्त हो जाता है। 
  • लिंग मुद्रा पुरुषों के समस्त यौन में अचूक है। इस मुद्रा के प्रयोग से स्त्रियों के मासिक स्राव संबंधित अनियमितता ठीक होती है। 
  • लिंग मुद्रा के अभ्यास से टली हुई नाभि पुनः अपने स्थान पर आ जाती है। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • यह मुद्रा का पुरुषत्व का प्रतीक है इसलिए इसे लिंग मुद्रा कहा जाता है। लिंग मुद्रा के अभ्यास से साधक में स्फूर्ति एवं उत्साह का संचार होता है। 
  • यह मुद्रा ब्रह्मचर्य की रक्षा करती है, व्यक्तित्व को शांत एवं आकर्षक बनाती है जिससे व्यक्ति आंतरिक स्तर पर प्रसन्न रहता है। 


9.अपान मुद्रा 

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विधि :

  • सुखासन या अन्य किसी आसन में बैठ जाएं दोनों हाथ घुटनों पर, हथेलियाँ  ऊपर की तरफ एवं रीढ़ की हड्डी सीधी रखें। 
  • मध्यमा ( बीच के अंगुली ) एवं अनामिका ( Ring Finger ) अंगुली के ऊपरी छोर को अंगूठे के ऊपरी छोर से स्पर्श कराकर हल्का सा दबाए। तर्जनी अंगुली एवं कनिष्ठा ( सबसे छोटी ) उंगली सीधी रहे। 

सावधानीयां : 

  • अपान मुद्रा के अभ्यास काल में मूत्र अधिक मात्रा में आता है क्योंकि इस मुद्रा के प्रभाव से शरीर के अधिकाधिक मात्रा में विष बाहर निकालने के प्रयास स्वरूप मूत्र ज्यादा आता है, इससे घबराए नहीं। 
  • अपान मुद्रा को दोनों हाथों से करना अधिक लाभदायक है अतः यथासंभव इस मुद्रा को दोनों हाथों से करना चाहिए। 

मुद्रा करने का समय व अवधि :

  • अपान मुद्रा को प्रातः, दोपहर, सायं 16 - 16 मिनट करना सर्वोत्तम है। 

चिकित्सकीय लाभ :

  • अपान मुद्रा के नियमित अभ्यास से कब्ज, गैस, गुर्दे तथा आंतो से संबंधित समस्त रोग नष्ट हो जाते है। 
  • अपान मुद्रा बवासीर रोग के लिए अत्यंत लाभकारी है। इसके प्रयोग के बवासीर समूल नष्ट हो जाती है। 
  • यह मुद्रा मधुमेह के लिए लाभकारी है, इसके निरंतर प्रयोग से रक्त मर शर्करा का स्तर संतुलित होता है। 
  • अपान मुद्रा शरीर के मल निष्कासक अंगों - त्वचा, गुर्दे एवं आंतों को सक्रिय करती है। जिससे शरीर का बहुत सारा विष पसीना, मूत्र व मल के रूप में बाहर निकल जाता है और शरीर शुद्ध व निरोग हो जाता है। 

  

आध्यात्मिक लाभ :

  • अपान मुद्रा से प्राण अपान वायु अन्तुलित होती है। इस मुद्रा में इन दोनों वायु के संयोग के फलस्वरूप साधक का मन एकाग्र होता है। 
  • अपान मुद्रा के अभ्यास से स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र जाग्रत होते है। 

10.अपान वायु मुद्रा 

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विधि : 

  • सुखासन या अन्य किसी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाएं। दोनों हाथ घुटनों पर रखें, हथेलियाँ ऊपर की तरफ रहें एवं रीड की हड्डी सीधी रहे। 
  • हाथ की तर्जनी (प्रथम ) अंगुली को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगा दे तथा मध्यमा ( बीच वाली अंगुली ) व अनामिका (तीसरी अंगुली ) अंगुली के प्रथम छोर को अंगूठे के प्रथम छोर से स्पर्श कर हल्का दबाए। 
  • कनिष्ठिका ( सबसे छोटी अंगुली ) अंगुली सीधी रहे। 

सावधानियाँ : 

  • अपान वायु मुद्रा एक शक्तिशाली मुद्रा है इसमें एक साथ तीन तत्वों का मिलन अग्नि तत्व होता है, इसलिए इसे निश्चित समय से अधिक नहीं करना चाहिए। 

मुद्रा करने का समय व अवधि :

  • अपान वायु मुद्रा करने का सर्वोत्तम समय प्रातः, दोपहर व सायंकाल है। इस मुद्रा को दिन में 48 मिनट तक कर सकते हैं। दिन में 3 बार 16 -16 मिनट भी कर सकते हैं। 

चिकित्सकीय लाभ :

  • अपान वायु मुद्रा ह्रदय रोग के लिए रामबाण है इसलिए इसे ह्रदय मुद्रा भी कहा जाता है। 
  • दिल का दौरा पड़ने पर यदि रोगी यह मुद्रा करने की स्थिति में हो तो अपान वायु मुद्रा कर लेनी चाहिए। इससे तुरंत लाभ होता है एवं हार्ट अटैक का खतरा टल जाता है। 
  • इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप एवं अन्य ह्रदय संबंधी रोग नष्ट हो जाते हैं। 
  • अपान वायु मुद्रा करने से आधे सिर का दर्द तत्काल रुप से कम हो जाता है एवं इसके नियमित अभ्यास से यह रोग संपूर्ण नष्ट हो जाता है। 
  • यह मुद्रा उदर विकार को समाप्त करती है अपच, गैस, एसिडिटी, कब्ज जैसे लोगों को अत्यंत लाभकारी है। 
  • अपान वायु मुद्रा करने से गठिया एवं अर्थराइटिस रोग में लाभ होता है। 

आध्यात्मिक लाभ :

  • अपान वायु मुद्रा अग्नि, वायु, आकाश एवं पृथ्वी तत्व के मिलन से बनती है। इस मुद्रा के प्रभाव से साधक में सहनशीलता, स्थिरता, व्यापकता और तेज का संचार होता है। 

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